Wednesday, 24 September 2014

वो धूल चढ़ा दुपट्टा


यूँ तो गुज़र गया है वक़्त,
कुछ तुम्हारे ही जैसे,
मगर है कुछ अभी भी,
जो गुज़रता नहीं,
खड़ा रहता है यहाँ,
मेरे साथ चलता है हर कहीं,
हाँ वही, धूल चढ़ा सा दुपट्टा,
जिसमे तुम्हारे स्वेद की बूँद,
और कुछ पल समेटे थे मैंने,
जो अब शब्द बन गए हैं,
कुछ हिसाब मांगते हैं,
कुछ तुमसे, कुछ मुझसे,
अब ये सवाल करते हैं।  

- नेहा सेन 'स्नेही' 

Saturday, 23 November 2013

'यूँ तो जाने कबसे है मुहोब्बत तुमसे'




यूँ तो जाने कबसे है मुहोब्बत तुमसे,
मगर आज फिर तुम्हें चाहने को जी चाहता है,

यूँ तो जाने कबसे है ये दिन रात तुमसे,
मगर आज फिर मुकम्मल कुछ पल करने को जी चाहता है,

यूँ तो बसेरा है तुम्हारे मन में मेरा,
मगर आज फिर तुम्हारी आँखों में बस जाने को जी चाहता है,

यूँ तो भरोसा है जीवन भर का तुमसे,
मगर आज फिर तुम पर एतबार को जी जाता है,

यूँ तो जीना सिखा है मैंने तुमसे,
मगर आज फिर तुम पर मर मिटने को जी चाहता है,

यूँ तो मुझमे मैं भी है तुम्हारा,
मगर आज फिर तुम्हें कुछ देने को जी चाहता है,

यूँ तो लिखा कई बार है तुम्हें,
मगर आज फिर से तुम्हें कहने को जी चाहता है,

यूँ तो जाने कबसे है मुहोब्बत तुमसे,
मगर आज फिर तुम्हें चाहने को जी चाहता है !!


- नेहा सेन 

सर्वाधिकार सुरक्षित। 

Monday, 30 September 2013

'अंतर्मन' III


दिल कहता है कह दूँ आज,
अलफ़ाज़ वो अनसुने लिख दूँ आज,
हुई नहीं जाने बातें कब से,
ख़ामोशी के साए हैं शायद जब से,
रुबुरू मगर कलम आज फिर है,
स्याही से जो कागज़ भरती है,
पढ़ कर पलकों पर मेरी,
राज़-ऐ-दिल लिखती है,
थामा है जिस गुमार को बरसों,
आज उसे बहने देती है,
कहती है ज़ख्मो को अब भरने दो,
इसी कागज़ को अब मरहम बनने दो,
और न करो इंतज़ार तुम राहगिर का,
ऐतबार उस से दावा का,
कि आ जाते हैं सूरज ढलने तक,
होते हैं जो हमसफ़र ज़िन्दगी भर तक,
नहीं आते है वो परिंदे कभी,
खुली खिड़की से जो उड जाते हैं,
और रहते नहीं ज़ख़्म भी,
वक़्त से जब मिल जाते हैं ~!!

- नेहा सेन