Monday 30 September 2013

'अंतर्मन' III


दिल कहता है कह दूँ आज,
अलफ़ाज़ वो अनसुने लिख दूँ आज,
हुई नहीं जाने बातें कब से,
ख़ामोशी के साए हैं शायद जब से,
रुबुरू मगर कलम आज फिर है,
स्याही से जो कागज़ भरती है,
पढ़ कर पलकों पर मेरी,
राज़-ऐ-दिल लिखती है,
थामा है जिस गुमार को बरसों,
आज उसे बहने देती है,
कहती है ज़ख्मो को अब भरने दो,
इसी कागज़ को अब मरहम बनने दो,
और न करो इंतज़ार तुम राहगिर का,
ऐतबार उस से दावा का,
कि आ जाते हैं सूरज ढलने तक,
होते हैं जो हमसफ़र ज़िन्दगी भर तक,
नहीं आते है वो परिंदे कभी,
खुली खिड़की से जो उड जाते हैं,
और रहते नहीं ज़ख़्म भी,
वक़्त से जब मिल जाते हैं ~!!

- नेहा सेन 

2 comments:

  1. सुंदर अभिव्यक्ति !
    कृपया वर्ड वेरिफिकेशन डिसऐबल करें कमेंट्स करने में थोड़ा आसानी हो जायेगी !

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    1. हार्दिक धन्यवाद गुरु जी। :)
      जी करती हूँ।

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