ख़ामोशी के साये हैं,
कुछ तुमने,
कुछ मैंने बनाये हैं,
होती हैं बातें मगर,
लफ्ज़ ठहरे कई दरमियान हैं,
बैठे हो तुम भी,
हम भी यहीं मख्दूमा हैं,
है फिर भी मगर ये ख़ामोशी,
करती जो फ़ासले बयान है,
गिल्लें हैं हमें कुछ,
तुमको भी तो गुमान है,
चाहत है हमको,
तलब तुम्हारी भी अयाँ है,
है फिर भी मगर ये ख़ामोशी,
गहरा जैसे कोई इतिकाद है,
नए अभी भी मगर,
उन ज़ख्मों के निशाँ हैं,
शिकायत करें या,
लद्दें अब हम,
बयान करें शिकवे अब,
या इज़हार-ऐ-मुहब्बत करें हम,
गम हुए हैं सवाल कई,
और ख़ामोशी जुबां है,
सुलझा दो तुम ही अब,
मेरी उलझनों का ये किस्सः है,
सर्वाधिकार सुरक्षित !
Log kehte hain khamosiyo se wasta nahi hai hamara...
ReplyDeletehame to chahakne ki aadat hai...
kamosiya darati hai mujhe...
dil hai jo zubaan ban jata hai
khamosiyo main to ishq jawa hota hai
par hum kaya kare...
ishq nai samajh nahi aata hame...
log kehte hai hame to chahakne ki aadat hai....
ब्लॉग जगत में आपका स्वागत है...
ReplyDeleteबेहतरीन रचना है .......मुझे आपका लिखा पढ़ना अच्छा लगता है भगवान आपको खुश रखे..
मुझे आशा है आपसे बहुत कुछ पढने को मिलेगा..
अपना ख्याल रखियेगा
चलो आज कुछ यूँ करे...
खामोशिओं कि बात करे !
लफ़्ज़ों को छोड़,
अहसासों से कुछ बात करे..!
ज़ख्म जो गहरे है,
फिर से उन्हें महसूस करे..!
*मनीष मेहता
http://musafirhunyaro.blogspot.com/