सुख गए हैं पत्ते भी,
आगन के उस दरख़्त के,
पल वो महकते थे,
छावं में जिसकी कभी,
इन्तिशार हैं यादें सभी,
बैठा करते थे जहाँ हम,
अक्सर वक़्त बिताने को,
पलों को बस गिनते ही,
फ़क़त हैं बेरंग पत्ते अब,
देखा है हमने भी,
बेजान किस कदर,
एहसास पड़े थे अब भी,
जला आए हैं हम,
आज उन्हें भी,
कि तड़प उनकी नहीं,
तो सुकून है हमें भी ~!!
- नेहा सेन
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